कोल्हुई बाजार, महाराजगंज। नौतनवा थाना क्षेत्र अंतर्गत बरगदवा अयोध्या में बना जिले का नम्बर एक मनरेगा पार्क एवं अमृत सरोवर पर बने छठ घाट पर जल में खड़ी व्रती महिलाओं ने उदयाचल सूर्य को अर्घ्य देकर अपना व्रत समाप्त किया।
बता दें कि यह पर्व चार दिनों तक चलता है जिसमें प्रथम दिन नहाय खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन अस्ताचल सूर्य का अर्घ्य और चौथे दिन उदयाचल सूर्य को अर्घ्य देकर अपना ब्रत समाप्त करती हैं।छठ पूजा का व्रत करने वाले 36 घंटे तक निर्जला उपवास करते हैं। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को व्रत रहने के बाद दूसरे दिन सप्तमी तिथि उदयाचल सूर्य को अर्घ्य देकर अपना व्रत समाप्त करते हैं।
इस व्रत को मुख्य रूप से सूर्य उपासना के लिए किया जाता है ताकि पूरे परिवार पर उनका आशीर्वाद बना रहे।साथ ही साथ यह व्रत संतान के सुखद भविष्य के लिए किया जाता है।
मान्यता है कि इस व्रत को करने से नि: संतान को संतान की प्राप्ति होती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।इस पर्व की शुरुआत मुख्य रूप से बिहार से शुरू हुआ है। लेकिन इस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली के एन सी आर में छठ पर्व को देखा जा सकता है। धीरे -धीरे यह पर्व देश के अन्य प्रदेशों में भी मनाया जा रहा है। बरगदवा अयोध्या में छठ घाट पर सैकड़ों महिलाएं मौजूद थीं।इस व्रत को स्त्री -पुरुष दोनों रह सकते हैं।
इस विषय में पंडित राधेश्याम पाण्डेय बताते हैं कि
जब विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता की स्त्रियाँ अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ सज-धज कर अपने आँचल में फल ले कर निकलती हैं, तो लगता है जैसे संस्कृति स्वयं समय को चुनौती देती हुई कह रही हो--- "देखो ! तुम्हारे असंख्य झंझावातों को सहन करने के बाद भी हमारा वैभव कम नहीं हुआ है। हम सनातन हैं, हम भारत हैं, हम तब से हैं , जब से तुम हो और जब तक तुम रहोगे, तब तक हम भी रहेंगे।"
जब घुटने भर जल में खड़ी व्रती महिला की सिपुली में बाल सूर्य की किरणें उतरती हैं, तो लगता है जैसे स्वयं सूर्य बालक बन कर उसकी गोद में खेलने उतरे हैं। स्त्री का सबसे भव्य, सबसे वैभवशाली स्वरूप वही है। इस धरा को "भारत माता" कहने वाले बुजुर्गों के मन में स्त्री का यही स्वरूप रहा होगा। कभी ध्यान से देखिएगा--छठ के दिन जल में खड़े हो कर सूर्य को अर्घ्य दे रही किसी स्त्री को, आपके मन में मोह नहीं श्रद्धा उपजेगी।
छठ वह प्राचीन पर्व है, जिसमें राजा और रंक एक घाट पर माथा टेकते हैं, एक देवता को अर्घ्य देते हैं और एक बराबर आशीर्वाद पाते हैं। धन और पद का लोभ मनुष्य को मनुष्य से दूर करता है, पर धर्म उन्हें साथ लाता है।
अपने धर्म के साथ होने का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि आप अपने समस्त पुरुखों के आशीर्वाद की छाया में होते हैं। छठ के दिन नाक से माथे तक सिन्दूर लगा कर घाट पर बैठी स्त्री न केवल अपनी अनेक पीढ़ियों--अजियासास ननियासास की छाया में होती है, बल्कि वह उन्हीं का स्वरूप होती है।
उसके दउरे में केवल फल नहीं, बल्कि समूची प्रकृति होती है। वह एक सामान्य स्त्री नहीं, अन्नपूर्णा सी दिखायी देती है।
ध्यान से देखने पर आपको उनमें कौशल्या , मैत्रेयी , सीता , अनुसुइया , सावित्री , पद्मावती , लक्ष्मीबाई और भारत माता दिखेंगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके आँचल में बंध कर यह सभ्यता अगले हजारों वर्षों का सफर तय कर लेगी।
छठ डूबते और उगते सूरज--दोनों की आराधना का पर्व है।
डूबते सूर्य की आराधना इसलिए कि डूबता सूरज इतिहास होता है और कोई भी सभ्यता तभी दीर्घजीवी होती है, जब वह अपने इतिहास का पूजन करे। अपने इतिहास के समस्त योद्धाओं को पूजे और इतिहास में अपने विरुद्ध हुए सारे आक्रमणों और षड्यंत्रों को याद रखे।
छठ उगते सूर्य की आराधना का पर्व इसलिए है कि उगता सूर्य भविष्य होता है और किसी भी सभ्यता के यशस्वी होने के लिए आवश्यक है कि वह अपने भविष्य को पूजा जैसी श्रद्धा और निष्ठा से सँवारे। हमारी आज की पीढ़ी यही करने में चूक रही है, पर उसे यह सब करना ही होगा, यही छठ व्रत का मूल भाव है।
मैं खुश होता हूँ घाट जाती स्त्रियों को देख कर, मैं खुश होता हूँ उनके लिए राह बुहारते पुरुषों को देख कर, मैं खुश होता हूँ उत्साह से लबरेज बच्चों को देख कर ! सच पूछिए तो यह खुशी मेरी नहीं। यह तो मेरे देश, मेरी मिट्टी और मेरी सभ्यता की खुशी है।
मेरे देश की माताओं ! जब आदित्य देव आपकी सिपुली में उतरें, तो उनसे कहिएगा कि इस देश और इस संस्कृति पर भी अपनी कृपा बनाये रखें, ताकि हजारों वर्ष के बाद भी हमारी पुत्रवधुएँ यूँ ही सज-धज कर गंगा के जल में खड़ी हों और गाते हुए कहें---
"उगs हो सुरुज देव----भइले अरघिया के बेर..."
जय हो....